8.2 अर्थव्यवस्था, भूमि व्यवस्थाएँ एवं व्यापार – Mughal Economy, Land Revenue System & Trade (UPSC/PCS/RO-ARO/UPSSSC/Police)
“ज़ा–ना–कं–बा” ⇒ ज़ब्ती, नसक, कंकूत, बटाई (चार प्रमुख भू–राजस्व पद्धतियाँ)
“पो–पा–चा–हू–मसू” ⇒ पोर्तुगाल (Goa), पाटन/कम्बे, चावलपाट्टनम, हूगली, मसूलीपट्टनम (मुख्य बंदरगाह)
💼Mughal Economy का मूल ढाँचा
मुगल अर्थव्यवस्था का आधार कृषि थी। राज्य की आय का बड़ा हिस्सा भूमि–राजस्व (Land Revenue) से आता था, जिसे खराज/माल कहा जाता था। शिल्प, व्यापार, कर, कस्टम–ड्यूटी आदि सहायक स्रोत थे।
मुगल काल का गाँव आर्थिक इकाई का मूल केंद्र था। अधिकांश जनसंख्या ग्रामीण व कृषि–निर्भर थी।
- खरीफ फसलें: धान, ज्वार, बाजरा, कपास, तिल आदि।
- रबी फसलें: गेहूँ, जौ, चना, मसूर आदि।
- नकदी फसलें: कपास, गन्ना, नील, अफीम आदि – यही Commercialisation of Agriculture की आधारशिला हैं।
बरसाती खेती के साथ–साथ कुआँ, तालाब और कुछ क्षेत्रों में नहरों का प्रयोग होता था।
- यमुना–घाटी व पंजाब में नहरों का उपयोग अपेक्षाकृत अधिक।
- कुएँ (चरस/रहट से पानी उठाना) – सूखे क्षेत्रों में आम।
- अकबर व शाहजहाँ के समय कुछ नहर–निर्माण, पर British समय की तरह संगठित Canal System नहीं।
उत्पादकता क्षेत्र–विशेष पर निर्भर थी, पर नकदी फसलों का हिस्सा धीरे–धीरे बढ़ता गया।
अकबर के समय भूमि को उसकी उपयोगिता के आधार पर वर्गीकृत किया गया:
- पोलज: हर वर्ष जोती–बोई जाने वाली उपजाऊ भूमि।
- परौती: कुछ वर्षों के लिए खाली छोड़ी भूमि, फिर खेती योग्य।
- चाचर: लंबी अवधि से परती पड़ी भूमि, पुनः खेती योग्य बनाने में समय लगता है।
- बनजर: बंजर/अउपजाऊ भूमि, जिसे जोतने की संभावना बहुत कम।
मुगल काल में राजस्व निर्धारण की कई पद्धतियाँ एक साथ/क्षेत्रानुसार चलीं:
- ज़ब्ती (Zabti): भूमि–मापन, औसत उपज व औसत मूल्य पर आधारित Cash Assessment – अकबर का मुख्य Model।
- नसक (Nasaq): अनुमान/पुरानी वसूली के आधार पर लगान – जहाँ विस्तृत मापन कठिन था।
- कंकूत: खेत में खड़े फसल का निरीक्षण व अनुमान आधारित निर्धारण।
- बटाई/घल्ला बख्शी: उपज का हिस्सा – 1/3 या 1/2 हिस्सा राज्य का, Natural Share System।
Mughal Land Revenue System में ज़मींदार महत्वपूर्ण मध्यस्थ थे।
- ज़मींदार के पास परंपरागत भू–अधिकार व स्थानीय प्रभाव होता था।
- वह किसानों से लगान वसूलकर राज्य को भेजता, तथा बीच का हिस्सा अपने लिए रखता था।
- कई जगह ज़मींदार खुद खेती नहीं करते, पर भूमि पर राजनीतिक–सामाजिक नियंत्रण रखते थे।
- ज़्यादा दबाव/उत्पीड़न के कारण किसान विद्रोह व पलायन की घटनाएँ भी होती हैं।
मनसबदारों को वेतन के बदले जागीर दी जाती थी, जहाँ से वे राजस्व लेकर अपना खर्च चलाते।
- जागीर – अस्थायी राजस्व–अधिकार, जमीन का स्वामित्व नहीं।
- मनसबदार अक्सर अधिक वसूली कर Local Economy पर दबाव बढ़ाते थे।
- औरंगज़ेब के समय मनसबदारों की संख्या बढ़ने से Jagir Crisis – उपजाऊ जागीरें कम पड़ने लगीं।
यह संकट आगे चलकर मुगल साम्राज्य की आर्थिक–प्रशासनिक कमजोरी का बड़ा कारण बना।
मुगल अर्थव्यवस्था की एक बड़ी विशेषता सुसंगठित मुद्रा प्रणाली थी।
- सोने का सिक्का: अशरफ़ी / मुहर।
- चाँदी का सिक्का: रुपया – Sher Shah से शुरू, Mughal period में मानक रूप से जारी।
- तांबे का सिक्का: दाम / फलुस – छोटे लेन–देन के लिए।
- मुद्रा पर शासक का नाम, उपाधि, टकसाल का नाम और वर्ष अंकित रहता।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था के साथ–साथ शहरी केंद्रों में Handicrafts व Textiles अत्यंत विकसित थे।
- कपड़ा उद्योग – मलमल, रेशम, ब्रोकेड, शाली, कालीन आदि।
- धातु–कला – हथियार, बर्तन, आभूषण।
- शाही करखाने (Karkhanas): दरबार की जरूरतों के लिए विशेष उत्पादन इकाइयाँ।
इनका उत्पाद आंतरिक एवं विदेशी व्यापार दोनों में महत्वपूर्ण स्थान रखता था।
आंतरिक व्यापार क़स्बा, मंडी, गाँव, शहर के बीच सक्रिय था।
- स्थानीय साप्ताहिक हाट, मंडियाँ – अनाज, कपड़ा, पशु, नमक आदि का व्यापार।
- कस्बा/केंद्र – कारीगर, व्यापारी, सुदखोर, साहूकारों का निवास स्थान।
- नगरों में विशेष बाजार – कपड़ा, अनाज, घोड़े, धातु आदि के अलग–अलग बाजार।
- सराय व सड़कों के कारण यात्रियों व माल–ढुलाई को सुविधा।
मुगल काल में समुद्री व स्थलीय दोनों तरह का विदेशी व्यापार फल–फूल रहा था।
- मुख्य समुद्री बंदरगाह: सूरत, कंबे/खंभात, मछलीपट्टनम, होगली, दीव, ठठ्ठा आदि।
- निर्यात – कपड़ा (Cotton & Silk), मसाले, अफीम, नील, शिल्प–उत्पाद।
- आयात – घोड़े, कीमती धातुएँ, हथियार, विलासिता की वस्तुएँ।
- पुर्तगाली, डच, अंग्रेज, फ्रांसीसी आदि यूरोपीय कंपनियाँ इस व्यापार में सक्रिय हुईं।
Prelims से ठीक पहले 5–7 मिनट में पूरा Topic revise करने के लिए तैयार किया गया सेक्शन। 2–3 बार दोहराने से Mughal Economy, Land Revenue System, Zamindari, Trade से जुड़े अधिकांश MCQs कवर हो जाते हैं।
- Mughal Economy = Agriculture + Land Revenue + Trade.
- Main Revenue = Kharaj / Mal (Land Revenue).
- Key Systems = Zabti, Nasaq, Kankut, Batai.
- Key Actors = Peasant, Zamindar, Jagirdar.
- Polaj – हर वर्ष जोती जाने वाली उपजाऊ जमीन।
- Parauti – अस्थायी रूप से परती, फिर खेती योग्य।
- Chachar – लंबे समय से छोड़ी, सुधार पर खेती योग्य।
- Banjar – बंजर, बहुत कम संभावना खेती की।
- Zabti – मापन + औसत उपज + औसत मूल्य; Cash Assessment.
- Nasaq – पुराने रिकार्ड + अनुमान आधारित।
- Kankut – खेत में खड़ी फसल की जाँच–परख।
- Batai/Ghalla-bakhshi – उपज का हिस्सा (share system).
- Peasant (Raiyat) – production का आधार।
- Zamindar – मालिकाना व राजनीतिक प्रभाव, मध्यस्थ।
- Mukaddam/Choudhary – village head / revenue intermediary.
- Patwari – record keeper (land & crops).
- Gold – Ashrafi / Mohur.
- Silver – Rupiya (standard coin).
- Copper – Dam / Fulus.
- Coin = ruler name + mint + year.
- West Coast – Surat, Cambay, Diu, Thatta.
- East Coast – Masulipatnam, Hooghly, Balasore.
- Exports – textiles, indigo, opium, spices, handicrafts.
- Imports – horses, metals, luxury goods, arms.
- Banias, Marwaris, Multanis, Bohras, Chettis – प्रमुख व्यापारी।
- Karkhana – शाही कार्यशाला, दरबार की आवश्यकता हेतु उत्पादन।
- Textiles + Metal crafts = main export items.
- Jagir Crisis (later Mughals) – too many mansabdars, too few rich jagirs.
- High revenue demand – peasant distress.
- Weak control over local zamindars.
- Regional powers + European trade competition.
व्याख्या: खालिसा क्षेत्र पर किसी जागीरदार का अधिकार नहीं होता था; यह मुगल वित्त का मुख्य, सुरक्षित और नियंत्रित राजस्व स्रोत था।
व्याख्या: टोडरमल द्वारा विकसित इस पद्धति में फसल–वार औसत उपज निकालकर तय अनुपात में कर निर्धारित होता था, जिससे किसान व राज्य दोनों को स्थिरता मिलती थी।
व्याख्या: बँदाबस्त में भूमि मापन, उपज अनुमान, कर–दर तय करना और वसूली की पद्धति शामिल होती थी; यही मुगल राजस्व प्रशासन का आधार था।
व्याख्या: जरीब से खेतों की लंबाई–चौड़ाई मापी जाती थी ताकि राजस्व निर्धारण के लिए मानक क्षेत्रफल तय किया जा सके।
व्याख्या: महसूल में भूमि कर के साथ अन्य कर (बाजार, पशु, व्यापार इत्यादि) शामिल हो सकते थे; यह कुल कर–आय के लिए प्रयुक्त व्यापक शब्द था।
व्याख्या: नमक रोजमर्रा की आवश्यक वस्तु थी, इसलिए उस पर लगाया गया कर राजस्व का स्थिर और सुरक्षित स्रोत माना जाता था।
व्याख्या: जहाँ किसी परगने/क्षेत्र में राजस्व लक्ष्य लगभग 1 करोड़ दाम तय होता था, वहाँ उसकी वसूली की निगरानी के लिए करोड़ी नियुक्त किया जाता था।
व्याख्या: सूरत से अंग्रेज़, पुर्तगाली, डच आदि यूरोपीय कंपनियाँ पूर्व और पश्चिम दोनों दिशाओं में वस्त्र, मसाले व अन्य वस्तुओं का व्यापार करती थीं।
व्याख्या: बंगाल, गुजरात, दक्कन आदि के महीन सूती कपड़े यूरोपीय बाज़ारों में अत्यधिक मांग में थे, जिससे भारत के पक्ष में व्यापार संतुलन बनता था।
व्याख्या: नगरीय अर्थव्यवस्था, साहूकारी, उधार, हुंडी, थोक व्यापार आदि का बड़ा हिस्सा बनिया समुदाय के हाथ में था; ये ही उस समय के “बैंकर” थे।
व्याख्या: अलाउद्दीन की तरह अनिवार्य मूल्य–नियंत्रण और राशनिंग जैसी नीति मुगल काल में नहीं अपनाई गई; यहाँ कर–प्रणाली व उत्पादकता पर अधिक ध्यान था।
व्याख्या: जमींदार किसानों से वसूल किए गए लगान का एक भाग अपने अधिकार के रूप में रखता था; साथ ही उसे उपहार, सेवाएँ और सामाजिक प्रतिष्ठा के लाभ भी प्राप्त होते थे।
व्याख्या: अबुल फ़ज़ल द्वारा रचित आइन-ए-अकबरी में अकबर के प्रशासन, राजस्व प्रणाली, फसल–दर, सूबों के आँकड़े आदि का अत्यंत विस्तार से वर्णन है।
व्याख्या: जो भूमि कम उपज देती थी या अनुपजाऊ थी, उस पर कर–दर भी कम रखी जाती थी ताकि किसान उसे जोतने के लिए प्रोत्साहित हों।
व्याख्या: 17वीं सदी में ईस्ट इंडिया कंपनी, डच व फ्रेंच कंपनियाँ सक्रिय थीं; बंगाल, सूरत, मद्रास, होगली आदि उनके प्रमुख व्यापारिक केंद्र बने।
व्याख्या: कानूंगो परगना स्तर पर पुराने रिकार्ड, लगान दर, हक–हकूक आदि का ज्ञान रखता था और अमील/दीवान को सलाह देता था।
व्याख्या: गंगा–ब्रह्मपुत्र डेल्टा क्षेत्र अत्यंत उपजाऊ था; यहाँ चावल, गुड़, कपास आदि की भरपूर उत्पादन होता था, इसलिए इसे धान का कटोरा कहा गया।
व्याख्या: मालगुजारी वह राशि थी जो किसान से वसूल कर राज्य या जमींदार के पास जाती थी; यही ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ थी।
व्याख्या: पट्टा में राज्य की ओर से भूमि विवरण और कर–शर्तें दर्ज होती थीं, जबकि कबूलियत में किसान इन्हें स्वीकार करने की लिखित सहमति देता था।
व्याख्या: यह अधिकारी किसानों और जमींदारों से निर्धारित कर वसूल कर ऊपर भेजता था तथा बकाया वसूली की कार्रवाई भी देखता था।
व्याख्या: ढाका, बंगाल और गुजरात की महीन मलमल व छपे हुए कपड़ों की मांग यूरोपीय बाज़ारों में अत्यधिक थी; कई यूरोपीय कंपनियाँ इन्हीं के लिए प्रतिस्पर्धा करती थीं।
व्याख्या: रुपया मूलतः शेरशाह द्वारा प्रचलित किया गया, जिसे मुगलों ने भी अपनाया; यह उच्च मूल्य का मानक चाँदी–सिक्का था।
व्याख्या: अकबर ने पूरे साम्राज्य में एकरूप वजन, धातु–मानक और डिजाइन वाली मुद्राएँ जारी कीं, जिससे व्यापार और कर–व्यवस्था में विश्वास व सुविधा बढ़ी।
व्याख्या: नमक पर सीमा, मार्ग और विक्रय – तीनों स्तरों पर कर लग सकता था; यही कारण था कि यह गरीब वर्ग पर भी अपेक्षाकृत अधिक कर–भार बन जाता था।
व्याख्या: मुहतसिब बाजार में तोल–मोल, नाप–तौल, सार्वजनिक नैतिकता और धार्मिक अनुशासन की निगरानी करता था; यह प्रशासन और समाज दोनों से जुड़ा पद था।
व्याख्या: जगत सेठ मुगल सम्राटों, नवाबों और बाद में अंग्रेज़ों को भी भारी ऋण व वित्तीय सहायता देते थे; इन्हें “बैंकर ऑफ बैंकर” कहा गया।
व्याख्या: व्यापारी एक नगर से दूसरे नगर में सुरक्षित रूप से धन भेजने के लिए हुंडी का उपयोग करते थे, जिससे लंबी दूरी का व्यापार बिना नकद ढुलाई के संभव हुआ।
व्याख्या: 17वीं सदी के उत्तरार्ध में बंगाल को “मुगल इंडिया का स्वर्ण प्रदेश” कहा जाता था; यहाँ से कपड़ा, रेशम, चावल, चीनी आदि का बड़ा निर्यात होता था।
व्याख्या: जब वस्तुएँ एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाती थीं तो सीमा–चौकियों पर लिया जाने वाला कर मकस कहलाता था; यह आंतरिक व्यापार का महत्वपूर्ण टैक्स था।
व्याख्या: तालुकदार कई गाँवों या इलाके पर सामाजिक व राजस्व–सत्ता रखता था और अक्सर अपनी छोटी–सीन्य व प्रशासनिक मशीनरी भी बनाए रखता था।
व्याख्या: अरबी घोड़े मुगल घुड़सवार सेना की युद्ध–क्षमता के लिए आवश्यक थे; इसलिए दक्कन के समुद्री मार्ग घोड़ा–व्यापार के लिए प्रसिद्ध थे।
व्याख्या: बगर भूमि न तो अत्यधिक उपजाऊ (चहकार) होती थी न पूरी तरह बंजर; इस पर लगान दर भी मध्यम ही रखी जाती थी।
व्याख्या: चौधरी गाँव या परगना स्तर पर किसानों से लगान वसूलने व प्रशासन से समन्वय रखने वाला महत्वपूर्ण मध्यस्थ होता था।
व्याख्या: यूरोप से चाँदी की भारी आवक सूरत के माध्यम से भारत आती थी, इसलिए इसे सिल्वर गेट (Silver Gate of India) कहा गया।
व्याख्या: यहाँ गेहूँ, जौ, गन्ना आदि की प्रचुर खेती होती थी; इसलिए मुगल राजस्व के लिए यह क्षेत्र अत्यंत महत्वपूर्ण था।
व्याख्या: विभिन्न टकसालों की मुद्राओं के चलते सर्राफ़ व्यापारियों को सही मुद्रा की पहचान, विनिमय दर और शुद्धता सुनिश्चित कराने में मदद करते थे।
